कुछ चुनिंदा महिलाओं के संग मेरी जंग इस कविता द्वारा प्रस्तुत है। कई बार ये एहसास दिलाया जाता है कि तुम निर्बुद्धि और असमर्थ हो । अहंकार न जाने किस चीज़ का होता है ? बात कर ली तो जैसे कृपा हो गयी । कुछ वर्ष तो समझने में ही व्यतीत हो गए की आखिर हो क्या रहा है ? फिर बत्ती जली और समझा की निरर्थक प्रयास के चलते कितनी ऊर्जा नदी में प्रवाहित कर दी । और फल के रूप में कुछ ना मिला ।
अनसुना अनकहा अनदेखा
पहले से राय बना कर,
खुद को अलग है कर,
ना जाने क्या तुमने है पाया ?
आया कोई जीवन में नया तो,
उससे बात तो करो !
कोशिश तो करो, आगे बढ़ने की,
शायद वह अच्छा हो !
पूर्वाभास किस आधार पर ?
कि वह है कहीं और से ?
या फिर, कोई नहीं चाहिए था,
जीवन में हमेशा के लिए ।
नकारात्मकता किस आधार पर ?
वह तो आया है, तुम संग बिताने वक़्त ,
फिर भी , हां - नहीं के उत्तरों से निबटा कर,
कर देना वार्ता ख़त्म |
व्यतीत होता है मुझको,
मानो जैसे किया हो कोई अपराध,
पर सिर ठोक कर पूछ लो,
ना मिलेगा कोई जवाब ।
हर क्षण सोचता है मन,
क्या है मेरा अपराध ?
कोई बता देता मुझे,
तो बढ़ता जीवन में विश्वास।
एक बार देखो तो सही मुझे,
सुन भी लो एक बार,
मैं इतनी भी असक्षम नहीं,
कि तोड़ ना पाऊं तुम्हारे विचार।
मैं तुम्हें प्रेम ही दूंगी,
दूंगी तुम्हें अपना साथ,
कोशिश तो करो मुझे अपनाने की ,
आजाएंगी ख़ुशियों की बहार !
अपनाएंगे एक दूसरे की कमियां,
कुछ सीखूंगी मैं तुमसे,
कुछ तुम मुझसे सीखना ,
संग प्रवास कर मित्र बनना ।
कितनी बार सोच कर देखा,
प्यार से जता कर देखा,
पर ना जीत पाई मन तुम्हारा ,
कठिन बनाया रास्ता मेरा |
तुम आसान नहीं हो ,
इतना टटोल कर , और ,
सतत् करने पर प्रयास,
नहीं जीत पाई विश्वास तुम्हारा ।
समय बहुत बीत गया अब,
केवल इकतरफा अनुराग ,
आगे और नहीं हो पाएगा ,
मेरी भी है समय सीमा ।
समझा लिया है स्वयं को ,
हम दोनों ही थे असमर्थ ,
नामंज़ूर है अब इतना,
मानसिक और बौद्धिक कष्ट उठाना |
शीत युद्ध कर हो गयी थकान ,
शायद यही है मर्म और सार ,
माना यही अंतिम परिणाम ,
सब अनसुना अनकहा अनदेखा !
संयुक्ता कशालकर