प्रस्तुत कविता मेरे निजी, व्यावसायिक और अव्यावसायिक जीवन में आये-गए कुछ महानुभावों के साथ, जो समय व्यतीत किया और उसकी अनुभूति का एक सार है। जब कुछ लोग खुद जीवन जीना भूलकर, दूसरों पर अपने विचार मूर्खतावश थोपते हैं तो, बाकी मानस को क्या क्या झेलना पड़ता है, उसका मेरी कविता द्वारा छोटा सा प्रयास।
मूरख पास तो कैसी आस?
शब्द कम पड़ेंगे, कुछ ऐसे हैं उदाहरण
मानस के चहुं ओर, बसता है प्रदूषण
उन जनों का जो मूरख़ हैं, ना जाने क्या देता है
उन्हें सतत् जीने का मक़सद ?
पर कहीं शायद वे भूल जाते हैं
कि सहन करता है उन्हें कोई हरदम
कभी बोल कर तो कभी नजरअंदाज कर
मूरख है ना ! नासमझी है दम पर।
चकित तो मन होता है तब
जब नासमझ को मिलता है अवसर
पर कहीं खुद को महान बताने का सतत विचार
दूर कर देता है उसके निंदक।
अब निंदक नहीं पास तो किसका डर ?
सदा उत्तेजित, व्याकुल और संदेह कर
अन्य को भी गुत्थी में उलझाना
इसी में मिलती है जैसे उसे चैना।
तांक झांक कर सभी को उलझाना
इधर से उधर और फिर ,उधर की इधर करना
अनावश्यक प्रश्नों के बाण मारना ,और दिखाना अपना वर्चस्व
उसे लगता है, यही बनाता है उसे मनमोहक।
पर मूरख से क्या मुंह लगना ?
मूरख पास तो कैसी आस लगाना ?
कदाचित हम स्वयं को सिखाते
हम वो ना करें, जो वो करे जाते।

संयुक्ता कशालकर

10 comments:
बहुत सुंदर लिखा हाँ संयुक्ता! God bless you!
Nagesh
Bada mazedaar! Vyang bhi aur sacchai bhi !
Heheh... Thank you
Sahi hai ! Maine bhi mehsoos kiya hai
Sahi hai yaar! Deja Vu!
😊
👍😊
Mazedaar aur sach
🙏
Thanks 👍
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