Saturday, May 23, 2020

कहानी एक रात की



कहानी एक रात की 

कहानी है एक रात की 
रात , एक गहरी रात थी  
घना चारों ओर अन्धेरा था 
न बिजली और  ना  कोई डेरा ।

चाँद भी फीका सा 
सितारे भी कहीं बहुत दूर 
अमावस बस बीती ही थी 
रात काली काली थी ।

एक अकेला आदमी था 
कहीं पीछे छूट गया था 
चलता जा रहा था , शून्य में 
कुछ बहका , कुछ सहमा सा ।

एक झोला लिए उम्मीद के साथ 
कि कोई दिख जाए , पूछने हाल 
पर मजाल है, की कोई दिख जाए ,
उस काली काली रात ?

थक कर चूर जब बैठा वो 
सोचा उसने क्या करेगा वो ?
मनाने लगा बस सुबह  हो
भागूँ मैं, अपनी जगह को  !

न कुछ खाने को , न कुछ पीने को 
भूँके पेट ही बैठ गया वो 
कुछ पल बीत गया था यूँ बैठे ही 
डर भी और नींद भी ।

धीरे धीरे पलकें बंद होने लगीं 
पर झटक कर फिर उठ जाता वो 
फिर सोता फिर उठता 
बस यही सिलसिला चलता रहता ।

कोई आहट हो या न हो 
पर मत कहता , सावधान रहो 
नींद भी होनी थी जरूरी 
करनी  थी अगले दिन यात्रा पूरी ।

बस सो ही गया था थोड़ा सा वो 
की उसे लगा , हुई कोई हलचल 
बिना आँख खोले ही ,समझाया खुद को 
बस बहुत हुआ नादान ! अब सो लो !

पर मन न माना , पलकें हलकी सी खोलकर 
देखा इधर और उधर , फिर कर ली बंद 
झटक के खोली पूरी आखें 
याद आया! था कुछ अलग ।

एकदम से देखा , एक डंडा और एक महिला 
घबरा कर उठ गया और चींखा 
महिला ने दिखाया अपना चेहरा 
उसने बोला , "मैं हूँ मैं !" ।

हो गया बेहोश बेचारा 
महिला ने मारा उसे डंडा 
फिर चींख निकली तेज़ 
भौंचक रह गया बेचारा ।

समझ लिया की ये था एक सपना 
बगल में थी उसकी सोती दिलरुबा 
दौड़ निकला अँधेरी रात में घर 
याद आया उसे पत्नी का डंडा । 

क़सम खाई फिर नहीं करूंगा 
अपनी बीवी से कोई धोका 
ऐसी  हो बीवी जिसकी 
घर रहे उतना ही निहाल ! 

संयुक्ता कशालकर