
कहानी एक रात की
कहानी है एक रात की
रात , एक गहरी रात थी
घना चारों ओर अन्धेरा था
न बिजली और ना कोई डेरा ।
चाँद भी फीका सा
सितारे भी कहीं बहुत दूर
अमावस बस बीती ही थी
रात काली काली थी ।
एक अकेला आदमी था
कहीं पीछे छूट गया था
चलता जा रहा था , शून्य में
कुछ बहका , कुछ सहमा सा ।
एक झोला लिए उम्मीद के साथ
कि कोई दिख जाए , पूछने हाल
पर मजाल है, की कोई दिख जाए ,
उस काली काली रात ?
थक कर चूर जब बैठा वो
सोचा उसने क्या करेगा वो ?
मनाने लगा बस सुबह हो
भागूँ मैं, अपनी जगह को !
न कुछ खाने को , न कुछ पीने को
भूँके पेट ही बैठ गया वो
कुछ पल बीत गया था यूँ बैठे ही
डर भी और नींद भी ।
धीरे धीरे पलकें बंद होने लगीं
पर झटक कर फिर उठ जाता वो
फिर सोता फिर उठता
बस यही सिलसिला चलता रहता ।
कोई आहट हो या न हो
पर मत कहता , सावधान रहो
नींद भी होनी थी जरूरी
करनी थी अगले दिन यात्रा पूरी ।
बस सो ही गया था थोड़ा सा वो
की उसे लगा , हुई कोई हलचल
बिना आँख खोले ही ,समझाया खुद को
बस बहुत हुआ नादान ! अब सो लो !
पर मन न माना , पलकें हलकी सी खोलकर
देखा इधर और उधर , फिर कर ली बंद
झटक के खोली पूरी आखें
याद आया! था कुछ अलग ।
एकदम से देखा , एक डंडा और एक महिला
घबरा कर उठ गया और चींखा
महिला ने दिखाया अपना चेहरा
उसने बोला , "मैं हूँ मैं !" ।
हो गया बेहोश बेचारा
महिला ने मारा उसे डंडा
फिर चींख निकली तेज़
भौंचक रह गया बेचारा ।
समझ लिया की ये था एक सपना
बगल में थी उसकी सोती दिलरुबा
दौड़ निकला अँधेरी रात में घर
याद आया उसे पत्नी का डंडा ।
क़सम खाई फिर नहीं करूंगा
अपनी बीवी से कोई धोका
ऐसी हो बीवी जिसकी
घर रहे उतना ही निहाल !
संयुक्ता कशालकर
7 comments:
This is a thriller !
Hahha... hope so :;
Alag si lagi.... tumse alag :)
Arre! This was easy and great! You should write such more
Achcha! Thanks
unexpected
Hehe thanks
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